Thursday 6 September 2012

जब मै गया अपने पापा की नानी के घर

           आज शाम को पापा ने घर पर बताया कि ‘‘नानी‘‘ जी की तबियत खराब है और हम सब उनको देखने जाने वाले हैं। काफी दिनों से बाबा-दादी भी वहां नहीं गये थे सो उनको तो जाना ही था, बड़ी बुआ ने कहा वह भी चलना चाहतीं हैं तो वह भी साथ हो गईं और छोटी बुआ को भी चलना था क्यों कि वह कभी गईं नहीं थीं। पापा के बिना कोई नहीं जा सकता था क्यों कि उनको ही तो कार चलानी थी, मम्मी भी जाने को तैयार थीं, फिर मैं कैसे नहीं जाता। मुझे तो इतनी दूर घूमने को मिल गया था, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।
इटावा से आगे जैसे ही हमारी गाड़ी आगे बढ़ी तो बेहड़ के ऊँचे-नीचे, सर्पाकार रास्ते देख-देखकर मुझे बहुत मजा आ रहा था, लगता रहा था जैसे मैं कार में नहीं झूला झूल रहा हूं। 
            पापा की नानी के यहां पहंुचकर मैने उनसे जै-जै की अले पैर छुये...उस दिन तो हम पूरे दिन घर पर ही रहे क्यों कि नानी मां की तबियत खराब थी सो घूमने की किससे कहता दूसरे दिन उनकी तबियत में काफी सुधार आया और वह बोलने भी लगीं उन्हें मुझे खूब सारी अच्छी-अच्छी बातें भी बतायीं, ढेर सारा प्यार किया और आर्शीवाद दिया। फिर फैसला हुआ कि मुझे थोड़ा सा घुमाया जाये, घर से निकलते-निकलते दोपहर हो गई थी इसलिये एक-दो जगह ही जा पाये। कहां-कहां घूमा मैं आइये आपको भी बताता हूं :- 
जगम्मनपुर फोर्ट
          सबसे पहले गये हम लोग जगम्मनपुर फोर्ट, आपको जानना है इस फोर्ट के बारे में चलो बताता हूं. 
            जगम्मनपुर किला जिला जालौन के पश्चिमोत्तर सीमा पर पचनदा, जमुना, चंबल, सिंध, पहूज और क्वारी नदियों के संगम से 4 किमी की दूरी पर पूर्व में स्थित है। यह किला 26-25 उत्तरी अक्षांश एवं 79-15 पूर्वी देशांतर पर स्थित है। जगम्मनपुर किला समतल भूमि को 40 फीट गहरा खोद कर खाई के मध्य में बनाया गया है। जिसका एक खंड तो भूमितल से नीचे पानी भरी खाई के बीच में है। जगम्मनपुर किला एक विशाल महल है जो 3 मंजिला है एक मंजिल भूमि के बराबर तल खंड है और 2 मंजिल भूमि से ऊपर है। महल, महल प्रांगण, किला मैदान सब मिलाकर लगभग 8 एकड़ में किला परिसर है, महल है, राजा का निवास है, सुरक्षा खाई है इसलिए राजसी वैभव के दृष्टिकोण से इसे लोग किला ही कहते है।
                 राजसी पत्र व्यवहार में भी फोर्ट जगम्मनपुर लिखा जाता है। किला का मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर दिशा की ओर है, जिसमें कीलादार बड़े मजबूत फाटक लगे हुए है, दरवाजा कलात्मक एवं चित्रकारी युक्त है। इस मुख्य दरवाजे के सामने सुंदर नजरबाग था जो अब नष्ट हो चुका है। महल का खास दरवाजा भी विशाल है। महल भवन के चारों कोनों पर षट पालीय चार पतले आकार की गुर्णे है। एक गुर्ण दक्षिणी भाग के मध्य में है। 
       महल दरवाजे को अंदल दीवालों पर चूना से तक्षण कला चित्रंकला एवं बाहर पीत की प्लेटों से जड़ा हुआ है। जिसमें लोहे के कीले जड़े है। महल के दरवाजे के अंदर से पश्चिम को एक सुरंग युक्त दालान से चलते हुए उत्तर को धूमें फिर पूर्व को धूमते हुए महल के उत्तरामिमुखी भीतरी द्वार पर पहुँचते है। यहाँ से महल चौक में पहुँचते है। महल चौक के दक्षिणी भाग में उत्तरामिमुखी लक्ष्मी नारायण का मंदिर है। 
                 ऐसी लोकमान्यता है कि इस मंदिर में प्रतिष्ठित लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा की प्रतिष्ठा संत तुलसीदास ने कराई। लोगों की मान्यता है कि संत तुलसीदास जी सन् 1578 ईण् में पचनदा आये थे, जिन्हे जगम्मन शाह पचनदा से जगम्मनपुर ले आए थे। उन्होने एक मुखी रूद्राक्षए दानामुखी शंख, भगवान लक्ष्मीनारायण की मूर्ति एवं खडाऊ जगम्मनशाह को दी थी जो अभी भी महल के इस मंदिर में सुरक्षित रखी हुई है।
कर्णखेड़ा
जगम्मनपुर फोर्ट घूमने के बाद हम पहुंचे कर्णखेड़ा। यहां पर एक बहुत अच्छा मंदिर है, इस स्थान के बारे में काफी सारी लोक मान्यतायें हैं। कुछ लोगों का मानना है कि राजा कर्ण नाम के एक राजा इस स्थान पर सवा मन सोना रोज दान करते थे, इसलिये इस स्थान का नाम कर्णखेड़ा पड़ा लेकिन इतिहासकारों के मुताबिक इसका इतिहास कुछ इस तरह है:-  
                हजारों वर्ष पूर्व यह स्थान आयुर्वेद के शोध के लिए विख्यात रहा है। मानव शरीर, जिसके बिना कोई भी धर्म, नियम निभने असम्भव हैं, की रक्षा का एकमात्र साधन आयुर्वेद है। जिस पर वेदों के संहिता काल से ही गम्भीर विचार होते रहे हैं। कहा जाता है कि आयुर्वेदिक सिद्धांतों का उपदेश ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने अश्विनी कुमारों को, अश्विनी कुमारों ने इंद्र को और इंद्र ने भरद्वाज को दिया। कश्यप संहिता के अनुसार अत्रि ने इंद्र से ज्ञान प्राप्त करके उसे अपने पुत्रों और शिष्यों को दिया, जिससे आयुर्वेद की यह परम्परा आत्रेय पर्यंत आ सकी।
                   अत्रि अपने आश्रम चित्रकूट में आयुर्वेद की शिक्षा देते थे मगर उन्होंने अपने पुत्र आत्रेय.पुनर्वस को अपने मित्र वामदेव के आश्रम, आधुनिक बांदा में शिक्षा के लिए भेजा जहां उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। फिर आचार्य आत्रेय पुनर्वस काम्पिल्य पांचाल राज्य (आधुनिक फर्रुखाबाद इटावाए मैनपुरी) चिकित्सा विद्यालय में आयुर्वेद के आचार्य बने। आत्रेय.पुनर्वसु के बारे में कहा जाता है कि वे अपने साथ आयुर्वेद.निष्णात मुनियों को लेकर जंगलों में औषधियों एवं वनस्पतियों के शोध के लिए परिभ्रमण करते रहते थे। उनके छह शिष्य थे. अग्निवेश, छारपाणि, हरीत, पराशर, भेड़ और जतूकर्ण।
            आत्रेय ने अपने तीन शिष्यों पाराशर, भेड़ और जतूकर्ण को इस क्षेत्र (आधुनिक जालौन जिला) में आयुर्वेद के शोध के लिए भेजा, क्योंकि यहां के जंगलों में वनस्पतियों की भरमार थी। पराशर ने बेतवा नदी के किनारे, आधुनिक परासन गांव अपना आश्रम स्थापित किया और शोध के बाद पाराशर संहिता की रचना की। उनके योग्य पुत्र व्यास ने इस पर और शोध करके जुर्वेदष् की रचना करके संसार की बड़ी सेवा की। आचार्य भेड़ ने जालौन के पास अपना आश्रम स्थापित किया और शोध में लग गए। उनकी रचित भेड़ संहिता आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। जहां पर उनका आश्रम था वह स्थान अब भेंड़ गांव के नाम से पहचाना जाता है, लेकिन वहां के निवासी ही अब नहीं जानते हैं कि गांव का नाम भेंड़ क्यों है।
              जतूकर्ण ने पचनदा के पास वर्तमान में जगम्मनपुर अपना शोध केंद्र स्थापित किया। जहां पर उनका शोध केंद्र था। वह स्थान उनके नाम जतूकर्ण के कारण कर्णखेड़ा के नाम से जाना जाने लगा।
पचनद
नानी मां के घर से वापस आते वक्त मै पापा, दोनों बुआ, दादा-दादी, पापा-मम्मी के साथ पचदन देखने भी गया और यहां पर स्थित मंदिर में भगवान के दर्शन भी किये। अरे!! पचनद के बारे में आपको कुछ बताया तो है ही नहीं ......चलो बताता हूं पचनद के बारे में भी:- 
        जनपद इटावा, औरैया और जालौन जनपदों की सीमा पर बहने वाली पांच नदियों यमुना, चंबल, सिंध, पहुज और क्वारी नदियां यहां पर आपस में मिलतीं हैं इसीलिये इस जगह को पचनद कहा जाता है। यहा पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन विशाल मेला लगता है और यह स्थान एक बड़े तीर्थ का रूप ले लेता है। श्रद्धालु इस दिन यहां स्नान करते हैं। 
और बताऊँ पचनद की महिमा का बखान सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने श्रीमद् देवी भागवत में किया है। पौराणिक मान्यता है कि यहां देवी सरस्वती का भी वास है। जब दैत्य राज बलि मां सरस्वती को पाताल लोक ले जाने लगे तो सारे देवता असहाय हो गये। इस स्थिति में ब्रह्मा ने मां सरस्वती को इसी स्थान पर गुप्त रूप से रहने को कहा। देवी भागवत के अनुसार रम्य और अरम्य नामक दो असुरों ने पचनद संगम में एक पैर पर खड़े होकर तप करना शुरू किया तो सारे देवकुल में खलबली मच गयी। देवताओं ने इंद्र की शरण ली। इंद्र ने मगर का रूप धारण कर तप में लीन रम्य को गहरे कूप में ले जाकर उसका वध किया। इस पर उसका भाई अरम्य व्यथित हो गया और उसने तपस्यारत होकर अपने को भस्म करने की ठान ली। वह ब्रह्मा का भक्त था। ब्रह्मा ने द्रवित होकर उसे ऐसा करने से रोका तो उसने वरदान मांग लिया कि वह ऐसे पुत्र को जन्म देगा जो देवताओं का मान मर्दन कर सके। ब्रह्मा के वरदान से अरम्य के महिषासुर नाम का पुत्र हुआ। जिसने सभी देवों को परास्त कर दिया तो स्वयं भगवती दुर्गा ने अवतार लेकर उसका वध किया। ब्रह्मा ने अरम्य की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त किया। उन्होंने अपने कमंडल से जल की कुछ बूंदें पचनद में डाल दीं। तबसे यह मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा ब्रह्मा मुहूर्त के समय अगर कोई पचनद में डुबकी लगाता है तो उसे चारों तरफ महामृत्युंजय यंत्र दिखायी देता है और वह अकाल मृत्यु से दूर रहता है।
            वाल्मीकि कृत रामायण के युद्ध कांड में लगातार तीन सर्गो में पचनद का वर्णन मिलता है। लोक मान्यता है कि गोस्वामी तुलसीदास भी यमुना मार्ग से पचनद स्थल पर आये थे और एक माह से ज्यादा समय यहां रहकर महाकालेश्वर की साधना की थी। उसी समय राजा जगम्मनदेव ने अपने नवनिर्मित किले का शिलान्यास भी कराया था। और हां आपने हर जगह देखा होगा कि भगवान शिव के भाल पर चंद्रमा विराजता है किंतु यहां महाकालेश्वर के मस्तिष्क पर सूर्य विराजमान है।

Thursday 30 August 2012

अगस्त 2012 : आराध्य कन्नौज में


अगस्त को मैं पापा के साथ कन्नौज गया था, अरे पापा वहां एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन समारोह में भाग लेने गये थे तो मैने सोचा मैं भी जिद करके देखूं, शायद चलने का मौका मिल जाये, और बस फिर क्या था पापा मान गये तो मुझे भी चलने का मौका मिल गया।  
मेरी मम्मी और बाबा भी साथ में थे, पापा कार चला रहे थे मैंने जिद की कि मुझे भी आगे बैठना है तो बाबा ने मुझे अपनी गोद में बैठा लिया। 
पापा की मीटिंग समाप्त होने के बाद कन्नौज की खास-खास जगहों पर घूमने का मौका मिला और कन्नौज का इतिहास जानने का भी, आपको भी जानना है कन्नौज के बारे में? चलिये मैं बताता हूँ:- 
कान्यकुब्ज उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगरों में से एक कन्नौज का प्राचीन नाम है। यह उत्तर प्रदेश राज्य का प्रमुख जिला एवं नगरपालिका है। कान्यकुब्ज कभी हिन्दू साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित रहा था। माना जाता है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण मूल रूप से इसी स्थान के रहने वाले हैं। सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में कान्यकुब्ज अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। वर्तमान कन्नौज शहर अपने इत्र व्यवसाय के अलावा तंबाकू के व्यापार के लिए भी मशहूर है। यहाँ मुख्य रूप से कन्नौजी बोली, कनउजी भाषा के रूप में इस्तेमाल की जाती है।
         कान्यकुब्ज की गणना भारत के प्राचीनतम ख्याति प्राप्त नगरों में की जाती है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार इस नगर का नामकरण कुशनाभ की कुब्जा कन्याओं के नाम पर हुआ था। पुराणों में कथा है कि पुरुरवा के कनिष्ठ पुत्र अमावसु ने कान्यकुब्ज राज्य की स्थापना की थी। कुशनाभ इन्हीं का वंशज था। कान्यकुब्ज का पहला नाम श्महोदयश् बताया गया है। महोदय का उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी है.
श्पंचालाख्योस्ति विषयो मध्यदेशेमहोदयपुरं तत्रश्ख्1,
        महाभारत में कान्यकुब्ज का विश्वामित्र के पिता राजा गाधि की राजधानी के रूप में उल्लेख है। उस समय कान्यकुब्ज की स्थिति दक्षिण पंचाल में रही होगी, किन्तु उसका अधिक महत्व नहीं था, क्योंकि दक्षिण.पंचाल की राजधानी कांपिल्य में थी।
       दूसरी शती ईण् पूण् में कान्यकुब्ज का उल्लेख पंतजलि ने महाभाष्य में किया है। प्राचीन ग्रीक लेखकों की भी इस नगर के विषय में जानकारी थी। चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के शासन काल में यह नगर मौर्य साम्राज्य का अंग ज़रूर ही रहा होगा। इसके पश्चात् शुंग और कुषाण और गुप्त नरेशों का क्रमशः कान्यकुब्ज पर अधिकार रहा। 140 ईण् के लगभग लिखे हुए टाल्मी के भूगोल में कन्नौज को कनगौर या कनोगिया लिखा गया है। 405 ईण् में चीनी यात्री फाह्यान कन्नौज आया था और उसने यहाँ पर केवल दो हीनयान विहार और एक स्तूप देखा थाए जिससे सूचित होता है कि 5वीं शती ईण् तक यह नगर अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं था।                          
              कान्यकुब्ज के विशेष ऐश्वर्य का युग 7वीं शती से प्रारम्भ हुआ, जब महाराजा हर्षवर्धन ने इसको अपनी राजधानी बनाया। इससे पहले यहाँ मौखरि वंश की राजधानी थी। इस समय कान्यकुब्ज को श्कुशस्थलश् भी कहते थे। हर्षचरित के अनुसार हर्ष के भाई राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात् गुप्त नामक व्यक्ति ने कुशस्थल को छीन लिया था, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष की बहिन राज्यश्री को विन्ध्याचल पर्वतमाला की ओर चला जाना पड़ा था। कुशस्थल में राज्यश्री के पति गृहवर्मा मौखरि की राजधानी थी।
युवानच्वांग का वर्णन
           चीनी यात्री युवानच्वांग के अनुसार कान्यकुब्ज प्रदेश की परिधि 400 ली या 670 मील थी। वास्तव में हर्षवर्धन ;606.647 ई. के समय में कान्यकुब्ज की अभूतपूर्व उन्नति हुई थी और उस समय शायद यह भारत का सबसे बड़ा एवं समृद्धशाली नगर था। युवानच्वांग लिखता है कि नगर के पश्चिमोत्तर में अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप थाए जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार गौतम बुद्ध ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थेए और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित थाए जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे। युवानच्वांग ने नगर के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य स्तूप का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छः मास तक ठहरे थे।
           युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के सौ बौद्ध विहारों और दो सौ देव.मन्दिरों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि श्नगर लगभग पाँच मील लम्बा और डेढ़ मील चौड़ा है और चतुर्दिक सुरक्षित है। नगर के सौंन्दर्य और उसकी सम्पन्नता का अनुमान उसके विशाल प्रासादों, रमणीय उद्यानों, स्वच्छ जल से पूर्ण तड़ागों और सुदूर देशों से प्राप्त वस्तुओं से सजे हुए संग्रहालयों से किया जा सकता है। 
         उसके निवासियों की भद्र वेशभूषाए उनके सुन्दर रेशमी वस्त्रए उनका विद्या प्रेम तथा शास्त्रानुराग और कुलीन तथा धनवान कुटुम्बों की अपार संख्या, ये सभी बातें कन्नौज को तत्कालीन नगरों की रानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थीं। युवानच्वांग ने नगर के देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य के मन्दिरों का भी ज़िक्र किया है। ये दोनों क़ीमती नीले पत्थर के बने थे और उनमें अनेक सुन्दर मूर्तियाँ उत्खनित थीं। युवानच्वांग के अनुसार कन्नौज के देवालय बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मन्दिर दिन.रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूँजते रहते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के भद्रविहार नामक बौद्ध महाविद्यालय का भी उल्लेख किया हैए जहाँ पर वह 635 ईण् में तीन मास तक रहा था। यहीं रहकर उसने आर्य वीरसेन से बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया था।
          अपने उत्कर्ष काल में कान्यकुब्ज जनपद की सीमाएँ कितनी विस्तृत थीं इसका अनुमान स्कन्दपुराण से और प्रबंधचिंतामणि के उस उल्लेख से होता है जिसमें इस प्रदेश के अंतर्गत छत्तीस लाख गाँव बताए गए हैं। शायद इसी काल में कान्यकुब्ज के कुलीन ब्राह्मणों की कई जातियाँ बंगाल में जाकर बसी थीं। आज के संभ्रांत बंगाली इन्हीं जातियों के वंशज बताए जाते हैं।
यशोवर्मन का अधिकार
            हर्षवर्धन के पश्चात कन्नौज का राज्य तत्कालीन अव्यवस्था के कारण छिन्न.भिन्न हो गया। आठवीं शती में यशोवर्मन कन्नौज का प्रतापी राजा हुआ। गौड़वहो नामक काव्य के अनुसार उसने मगध के गौड़ राजा को पराजित किया। कल्हण के अनुसार कश्मीर के प्रसिद्ध नरेश ललितादित्य मुक्तापीड़ ने यशोवर्मन के राज्य का मूलोच्छेद कर दिया ;श्समूलमुत्पाटयत्श्द्ध और कान्यकुब्ज को जीतकर उसे ललितपुर त्रलाटपौरद्ध के सूर्यमन्दिर को अर्पित कर दिया। कल्हण लिखता है कि ललितादित्य का कान्यकुब्ज प्रदेश पर उसी प्रकार अधिकार था जैसे अपने राजप्रासाद के प्रांगण पर। राजतरंगिणी में इस समय के कान्यकुब्ज के जनपद का विस्तार यमुना तट में कालिका नदी त्रकाली नदी तक कहा गया है। यशोवर्मन के पश्चात् उसके कई वंशजों के नाम हमें जैन ग्रंथों तथा अन्य सूत्रों से ज्ञात होते हैं इनमें वज्रायुध, इंद्रायुध और चक्रायुध नामक राजाओं ने यहाँ पर राज्य किया था। वज्रायुध का नाम केवल राजशेखर की कर्पूरमंजरी में है। जैन हरिवंश के अनुसार 783.784 ई. में इंद्रायुध कान्यकुब्ज में राज्य कर रहा था। कल्हण ने कश्मीर नरेश जयापीड विनयादित्य ;राज्यकालए 779.810 ई. द्वारा कन्नौज पर आक्रमण का उल्लेख किया है।
गुर्जर प्रतिहारों का राज्य
             इसके पश्चात ही राष्ट्रकूट वंश के ध्रुव ने भी कन्नौज के इस राजा को पराजित किया। इन निरन्तर आक्रमणों से कन्नौज का राज्य नष्ट.भ्रष्ट हो गया। राष्ट्रकूटों की शक्ति क्षीण होने पर राजपूताना मालवा प्रदेश के प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने चक्रायुध को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इस वंश में मिहिर भोज, महेन्द्र पाल और महिपाल प्रसिद्ध राजा हुए। इनके समय में कन्नौज के फिर से एक बार दिन फिरे। प्रतिहारकाल में कन्नौज हिन्दू धर्म का प्रमुख केन्द्र था। 8वीं शती से 10वीं शती तक हिन्दू देवताओं के अनेक कलापूर्ण मन्दिर बने, जिनके सैकड़ों अवशेष आज भी कन्नौज के आसपास विद्यमान हैं। इन मन्दिरों में विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, दुर्गा और महिषमर्दिनी की मूर्तियाँ हैं। कुछ समय पूर्व शिव.पार्वती परिणय की एक सुन्दर विशाल मूर्ति यहाँ से प्राप्त हुई थी जो कि 8वीं शती की है।
मुस्लिमों का आक्रमण
          बौद्ध धर्म का इस समय पूर्णतः ह्रास हो गया था। प्रतिहार वंश की अवनति के साथ ही साथ कन्नौज का गौरव भी लुप्त होने लगा। 10वीं शती के अन्त में राज्यपाल कन्नौज का शासक था। यह भी उस महासंघ का सदस्य थाए जिसने सम्मिलित रूप से महमूद ग़ज़नवी से पेशावर और लमगान के युद्धों में लोहा लिया था। 1018 ई- में महमूद ने कन्नौज पर ही हमला कर दिया। मुसलमान नगर का वैभव देख कर चकित रह गए। अलउतबी के अनुसार राज्यपाल को किसी पड़ोसी राज्य से सहायता न प्राप्त हो सकी। उसके पास सेना थोड़ी.सी ही थी और इसी कारण वह नगर छोड़कर गंगा पार बारी की ओर चला गया। मुसलमान सैनिकों ने नगर को लूटा, मन्दिरों को ध्वस्त किया और अनेक निर्दोष लोगों का संहार किया। अलबेरूनी लिखता है कि इस आक्रमण के पश्चात् यह विशाल नगर बिल्कुल उजड़ गया। 1019 ई. में महमूद ने दुबारा कन्नौज पर आक्रमण किया और त्रिलोचनपाल से लड़ाई ठानी। त्रिलोचनपाल 1027 ई. तक जीवित था। इस वर्ष का उसका एक दानपत्र प्रयाग के निकट पाया गया है। इसके पश्चात प्रतिहारों का कन्नौज पर शासन समाप्त हो गया।
जयचंद की पराजय
       1085 ई. में फिर एक बार कन्नौज पर चंद्रदेव गहड़वाल ने सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया। उसके समय के अभिलेखों में उसे कुशिक, कन्नौज, काशी, उत्तर कोसल और इंद्रस्थान या इंद्रप्रस्थ का शासक कहा गया है। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा गोविन्द चंद्र हुआ। उसने मुसलमानों के आक्रमणों को विफल किया जैसा कि उसके प्रशस्तिकारों ने लिखा है :- गोविन्द चंद्र बड़ा दानी तथा विद्याप्रेमी था। उसकी रानी कुमारदेवी बौद्ध थी और उसने सारनाथ में धर्मचक्रजिनविहार बनवाया था। गोविन्द चंद्र का पुत्र विजय चंद्र था। उसने भी मुसलमानों के आक्रमण से मध्यदेश की रक्षा की जैसा की उसकी प्रशस्ति से सूचित होता है। विजयचंद्र का पुत्र जयचंद्र1170 ई. के लगभग कन्नौज की गद्दी पर बैठा। पृथ्वीराज रासो के अनुसार उसकी पुत्री संयोगिता का पृथ्वीराज चौहान ने हरण किया था। जयचंद का मुहम्मद ग़ोरी के साथ 1163 में इटावा के निकट घोर युद्ध हुआ जिसके पश्चात कन्नौज से गहड़वाल सत्ता समाप्त हो गई। जयचंद ने इस युद्ध के पहले कई बार मुहम्मद ग़ौरी को बुरी तरह से हराया था, यह स्वाभाविक ही है कि मुसलमान इतिहास लेखकों ने ग़ौरी की पराजयों का वर्णन नहीं किया है, किन्तु उन्होंने जयचंद की उत्तरभारत के तत्कालीन श्रेष्ठ शासकों में गणना की है।
मुस्लिमों व अंग्रेज़ों का अधिकार
          गहड़वालों की अवनति के पश्चात कन्नौज पर मुसलमानों का आधिपत्य स्थापित हो गया, किन्तु इस प्रदेश में शासकों को निरन्तर विद्रोहों का सामना करना पड़ा। 1540 ई. में कन्नौज शेरशाह के हाथ में आ गया। उस समय यहाँ का हाक़िम बैरक नियाजी था, जिसके कठोर शासन के विषय में प्रसिद्ध था कि उसके लोगों के पास हल के अतिरिक्त लोहे की कोई दूसरी वस्तु नहीं छोड़ी थी। अकबर के समय कन्नौज नगर आगरा के सूबे में आता था और इसे एक सरकार बना दिया गया थाए जिसमें 30 महल थे। जहाँगीर के समय में कन्नौज को रहीम को जागीर के रूप में दिया गया था। 18वीं शती में कन्नौज में बंगश नवाबों का अधिकार रहा. किन्तु अवध के नवाब और रुहेलों से उनकी सदा लड़ाई होती रही. जिसके कारण कन्नौज में बराबर अव्यवस्था बना रही। 1775 ई. में यह प्रदेश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार में चला गया। 1857 ई. के स्वतंत्रता युद्ध में बंगश.नवाबतफ़ज्जुल हुसैन ने यहाँ स्वतंत्रता की घोषणा की किन्तु शीघ्र ही अंग्रेज़ों का यहाँ पुनः अधिकार हो गया। 
वर्तमान कन्नौज
वर्तमान में कन्नौज अपने आंचल में सैकड़ों वर्षों का धूप-छाॅव भरा इतिहास समेटे और कई बार उत्तरी भारत के विशाल राज्यों की राजधानी बनने की स्मृतियों को अपने अंतस में संजाये एक शहर है। 
         इस समय कन्नौज इत्र उद्योग के लिये पूरे विश्व में विख्यात है, यहां स्थित FFDC पूरे देश में सुगंध और सुरस के क्षेत्र में कार्य करने के लिये जाना जाता है। कुल मिलाकर पुरानी कोठियों और हवेलियों का शहर, हर्षवर्धन और जयचंद्र का शहर, संयोगिता का, इतिहास का शहर, इत्र का शहर जैसे अनिगिनत नामों से पहचाने जाने वाले कन्नौज में घूमना मुझे बहुत अच्छा लगा।

Friday 29 June 2012

29 जून 2012 : मुण्डन



आज मेरा मुण्डन हो गया........


मैं रोऊँ न इसलिये 
आज मुझे पूरी शैतानी करने की आजादी है.

पापा के कमरे में देखूं तो जरा
कुछ काम का है कि नहीं?








                                   



                                  अले वाह!! दो-दो पेन।




अरे पापा ने मुझे 
इतनी जोर से हंसा दिया।

Thursday 8 March 2012

08 मार्च 2012 :मेली पहली होली





यह है मेली पहली होली,
मैनें भी खेली होली। 
देतो कैसे रंग लगाया है सबने मेरे।






















अले मामा जी मुझे भी 

खिलाओ न गुझिया।








दोनों मामा मुझसे होली

मिलने आये हैं तभी तो देतो

मैं कितना खुश हूं।










कितनी देर हो गई 
मोबाइल पर बात करते.........
मेली तो कोई सुनता ही नहीं।


Thursday 2 February 2012

फरवरी 2012





देखो अपने बाबा की गोद में कितना खुश हूं मैं।




दादी भी हैं पास में।














और यह मेले पापा भी आ गये

























अले नहीं अब 

तो मुझे अकेले 

बैठना है इस 

कुर्सी पर,

बड़ी है तो क्या 

हुआ मैं बैठ 

नहीं सकता  क्या?????

Sunday 1 January 2012

जनवरी 2012 : मेरा ‘‘अन्नप्रासन’’ संस्कार


  





 01 जनवरी 2012 को मेरा ‘‘अन्नप्रासन’’ संस्कार हुआ!!!!!

अले, आज से मैंने अन्न खाना शुरू कर दिया है।

























आज मेले घर पर सुन्दरकाण्ड का पाठ भी हुआ।

 मैने भी जय बाबा की।







औल यह हैं डॉ. अनीता रंजन आंटी, मेजर एस.डी.सिंह मेडिकल कालेज की डायरेक्टर हैं, और साथ में हैं मेली मम्मी।












‘‘यह देतो, 
हम भी टोपा-तुम भी टोपा’’ 
यह है श्री कौशल किशोर दुबे जी, 
मेले ताऊ जी हैं यह।
Funny Pictures