Thursday 6 September 2012

जब मै गया अपने पापा की नानी के घर

           आज शाम को पापा ने घर पर बताया कि ‘‘नानी‘‘ जी की तबियत खराब है और हम सब उनको देखने जाने वाले हैं। काफी दिनों से बाबा-दादी भी वहां नहीं गये थे सो उनको तो जाना ही था, बड़ी बुआ ने कहा वह भी चलना चाहतीं हैं तो वह भी साथ हो गईं और छोटी बुआ को भी चलना था क्यों कि वह कभी गईं नहीं थीं। पापा के बिना कोई नहीं जा सकता था क्यों कि उनको ही तो कार चलानी थी, मम्मी भी जाने को तैयार थीं, फिर मैं कैसे नहीं जाता। मुझे तो इतनी दूर घूमने को मिल गया था, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।
इटावा से आगे जैसे ही हमारी गाड़ी आगे बढ़ी तो बेहड़ के ऊँचे-नीचे, सर्पाकार रास्ते देख-देखकर मुझे बहुत मजा आ रहा था, लगता रहा था जैसे मैं कार में नहीं झूला झूल रहा हूं। 
            पापा की नानी के यहां पहंुचकर मैने उनसे जै-जै की अले पैर छुये...उस दिन तो हम पूरे दिन घर पर ही रहे क्यों कि नानी मां की तबियत खराब थी सो घूमने की किससे कहता दूसरे दिन उनकी तबियत में काफी सुधार आया और वह बोलने भी लगीं उन्हें मुझे खूब सारी अच्छी-अच्छी बातें भी बतायीं, ढेर सारा प्यार किया और आर्शीवाद दिया। फिर फैसला हुआ कि मुझे थोड़ा सा घुमाया जाये, घर से निकलते-निकलते दोपहर हो गई थी इसलिये एक-दो जगह ही जा पाये। कहां-कहां घूमा मैं आइये आपको भी बताता हूं :- 
जगम्मनपुर फोर्ट
          सबसे पहले गये हम लोग जगम्मनपुर फोर्ट, आपको जानना है इस फोर्ट के बारे में चलो बताता हूं. 
            जगम्मनपुर किला जिला जालौन के पश्चिमोत्तर सीमा पर पचनदा, जमुना, चंबल, सिंध, पहूज और क्वारी नदियों के संगम से 4 किमी की दूरी पर पूर्व में स्थित है। यह किला 26-25 उत्तरी अक्षांश एवं 79-15 पूर्वी देशांतर पर स्थित है। जगम्मनपुर किला समतल भूमि को 40 फीट गहरा खोद कर खाई के मध्य में बनाया गया है। जिसका एक खंड तो भूमितल से नीचे पानी भरी खाई के बीच में है। जगम्मनपुर किला एक विशाल महल है जो 3 मंजिला है एक मंजिल भूमि के बराबर तल खंड है और 2 मंजिल भूमि से ऊपर है। महल, महल प्रांगण, किला मैदान सब मिलाकर लगभग 8 एकड़ में किला परिसर है, महल है, राजा का निवास है, सुरक्षा खाई है इसलिए राजसी वैभव के दृष्टिकोण से इसे लोग किला ही कहते है।
                 राजसी पत्र व्यवहार में भी फोर्ट जगम्मनपुर लिखा जाता है। किला का मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर दिशा की ओर है, जिसमें कीलादार बड़े मजबूत फाटक लगे हुए है, दरवाजा कलात्मक एवं चित्रकारी युक्त है। इस मुख्य दरवाजे के सामने सुंदर नजरबाग था जो अब नष्ट हो चुका है। महल का खास दरवाजा भी विशाल है। महल भवन के चारों कोनों पर षट पालीय चार पतले आकार की गुर्णे है। एक गुर्ण दक्षिणी भाग के मध्य में है। 
       महल दरवाजे को अंदल दीवालों पर चूना से तक्षण कला चित्रंकला एवं बाहर पीत की प्लेटों से जड़ा हुआ है। जिसमें लोहे के कीले जड़े है। महल के दरवाजे के अंदर से पश्चिम को एक सुरंग युक्त दालान से चलते हुए उत्तर को धूमें फिर पूर्व को धूमते हुए महल के उत्तरामिमुखी भीतरी द्वार पर पहुँचते है। यहाँ से महल चौक में पहुँचते है। महल चौक के दक्षिणी भाग में उत्तरामिमुखी लक्ष्मी नारायण का मंदिर है। 
                 ऐसी लोकमान्यता है कि इस मंदिर में प्रतिष्ठित लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा की प्रतिष्ठा संत तुलसीदास ने कराई। लोगों की मान्यता है कि संत तुलसीदास जी सन् 1578 ईण् में पचनदा आये थे, जिन्हे जगम्मन शाह पचनदा से जगम्मनपुर ले आए थे। उन्होने एक मुखी रूद्राक्षए दानामुखी शंख, भगवान लक्ष्मीनारायण की मूर्ति एवं खडाऊ जगम्मनशाह को दी थी जो अभी भी महल के इस मंदिर में सुरक्षित रखी हुई है।
कर्णखेड़ा
जगम्मनपुर फोर्ट घूमने के बाद हम पहुंचे कर्णखेड़ा। यहां पर एक बहुत अच्छा मंदिर है, इस स्थान के बारे में काफी सारी लोक मान्यतायें हैं। कुछ लोगों का मानना है कि राजा कर्ण नाम के एक राजा इस स्थान पर सवा मन सोना रोज दान करते थे, इसलिये इस स्थान का नाम कर्णखेड़ा पड़ा लेकिन इतिहासकारों के मुताबिक इसका इतिहास कुछ इस तरह है:-  
                हजारों वर्ष पूर्व यह स्थान आयुर्वेद के शोध के लिए विख्यात रहा है। मानव शरीर, जिसके बिना कोई भी धर्म, नियम निभने असम्भव हैं, की रक्षा का एकमात्र साधन आयुर्वेद है। जिस पर वेदों के संहिता काल से ही गम्भीर विचार होते रहे हैं। कहा जाता है कि आयुर्वेदिक सिद्धांतों का उपदेश ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने अश्विनी कुमारों को, अश्विनी कुमारों ने इंद्र को और इंद्र ने भरद्वाज को दिया। कश्यप संहिता के अनुसार अत्रि ने इंद्र से ज्ञान प्राप्त करके उसे अपने पुत्रों और शिष्यों को दिया, जिससे आयुर्वेद की यह परम्परा आत्रेय पर्यंत आ सकी।
                   अत्रि अपने आश्रम चित्रकूट में आयुर्वेद की शिक्षा देते थे मगर उन्होंने अपने पुत्र आत्रेय.पुनर्वस को अपने मित्र वामदेव के आश्रम, आधुनिक बांदा में शिक्षा के लिए भेजा जहां उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। फिर आचार्य आत्रेय पुनर्वस काम्पिल्य पांचाल राज्य (आधुनिक फर्रुखाबाद इटावाए मैनपुरी) चिकित्सा विद्यालय में आयुर्वेद के आचार्य बने। आत्रेय.पुनर्वसु के बारे में कहा जाता है कि वे अपने साथ आयुर्वेद.निष्णात मुनियों को लेकर जंगलों में औषधियों एवं वनस्पतियों के शोध के लिए परिभ्रमण करते रहते थे। उनके छह शिष्य थे. अग्निवेश, छारपाणि, हरीत, पराशर, भेड़ और जतूकर्ण।
            आत्रेय ने अपने तीन शिष्यों पाराशर, भेड़ और जतूकर्ण को इस क्षेत्र (आधुनिक जालौन जिला) में आयुर्वेद के शोध के लिए भेजा, क्योंकि यहां के जंगलों में वनस्पतियों की भरमार थी। पराशर ने बेतवा नदी के किनारे, आधुनिक परासन गांव अपना आश्रम स्थापित किया और शोध के बाद पाराशर संहिता की रचना की। उनके योग्य पुत्र व्यास ने इस पर और शोध करके जुर्वेदष् की रचना करके संसार की बड़ी सेवा की। आचार्य भेड़ ने जालौन के पास अपना आश्रम स्थापित किया और शोध में लग गए। उनकी रचित भेड़ संहिता आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। जहां पर उनका आश्रम था वह स्थान अब भेंड़ गांव के नाम से पहचाना जाता है, लेकिन वहां के निवासी ही अब नहीं जानते हैं कि गांव का नाम भेंड़ क्यों है।
              जतूकर्ण ने पचनदा के पास वर्तमान में जगम्मनपुर अपना शोध केंद्र स्थापित किया। जहां पर उनका शोध केंद्र था। वह स्थान उनके नाम जतूकर्ण के कारण कर्णखेड़ा के नाम से जाना जाने लगा।
पचनद
नानी मां के घर से वापस आते वक्त मै पापा, दोनों बुआ, दादा-दादी, पापा-मम्मी के साथ पचदन देखने भी गया और यहां पर स्थित मंदिर में भगवान के दर्शन भी किये। अरे!! पचनद के बारे में आपको कुछ बताया तो है ही नहीं ......चलो बताता हूं पचनद के बारे में भी:- 
        जनपद इटावा, औरैया और जालौन जनपदों की सीमा पर बहने वाली पांच नदियों यमुना, चंबल, सिंध, पहुज और क्वारी नदियां यहां पर आपस में मिलतीं हैं इसीलिये इस जगह को पचनद कहा जाता है। यहा पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन विशाल मेला लगता है और यह स्थान एक बड़े तीर्थ का रूप ले लेता है। श्रद्धालु इस दिन यहां स्नान करते हैं। 
और बताऊँ पचनद की महिमा का बखान सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने श्रीमद् देवी भागवत में किया है। पौराणिक मान्यता है कि यहां देवी सरस्वती का भी वास है। जब दैत्य राज बलि मां सरस्वती को पाताल लोक ले जाने लगे तो सारे देवता असहाय हो गये। इस स्थिति में ब्रह्मा ने मां सरस्वती को इसी स्थान पर गुप्त रूप से रहने को कहा। देवी भागवत के अनुसार रम्य और अरम्य नामक दो असुरों ने पचनद संगम में एक पैर पर खड़े होकर तप करना शुरू किया तो सारे देवकुल में खलबली मच गयी। देवताओं ने इंद्र की शरण ली। इंद्र ने मगर का रूप धारण कर तप में लीन रम्य को गहरे कूप में ले जाकर उसका वध किया। इस पर उसका भाई अरम्य व्यथित हो गया और उसने तपस्यारत होकर अपने को भस्म करने की ठान ली। वह ब्रह्मा का भक्त था। ब्रह्मा ने द्रवित होकर उसे ऐसा करने से रोका तो उसने वरदान मांग लिया कि वह ऐसे पुत्र को जन्म देगा जो देवताओं का मान मर्दन कर सके। ब्रह्मा के वरदान से अरम्य के महिषासुर नाम का पुत्र हुआ। जिसने सभी देवों को परास्त कर दिया तो स्वयं भगवती दुर्गा ने अवतार लेकर उसका वध किया। ब्रह्मा ने अरम्य की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त किया। उन्होंने अपने कमंडल से जल की कुछ बूंदें पचनद में डाल दीं। तबसे यह मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा ब्रह्मा मुहूर्त के समय अगर कोई पचनद में डुबकी लगाता है तो उसे चारों तरफ महामृत्युंजय यंत्र दिखायी देता है और वह अकाल मृत्यु से दूर रहता है।
            वाल्मीकि कृत रामायण के युद्ध कांड में लगातार तीन सर्गो में पचनद का वर्णन मिलता है। लोक मान्यता है कि गोस्वामी तुलसीदास भी यमुना मार्ग से पचनद स्थल पर आये थे और एक माह से ज्यादा समय यहां रहकर महाकालेश्वर की साधना की थी। उसी समय राजा जगम्मनदेव ने अपने नवनिर्मित किले का शिलान्यास भी कराया था। और हां आपने हर जगह देखा होगा कि भगवान शिव के भाल पर चंद्रमा विराजता है किंतु यहां महाकालेश्वर के मस्तिष्क पर सूर्य विराजमान है।
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